[Reader-list] 'उर्दू में है तो जिहादी ही होगा'

Javed javedmasoo at gmail.com
Wed Dec 7 15:16:16 IST 2011


'उर्दू में है तो जिहादी ही होगा'
(If its in Urdu, it must be a terrorist)

Tuesday, 06 December 2011 12:41

दाखिल किये गये चार्जशीट में हवाई आरोप लगाये गये थे, जिनका मक्का मस्जिद
धमाके से कोई लेना-देना नहीं था। हद ये थी कि पुलिस ने युवकों को सिर्फ
इसलिए संगीन अपराधी करार दिया था कि उनके पास उर्दू में लिखी कुछ
पुस्तकें-पत्रिकाएं मिली थी...

मेजर एमजीएम कादरी से अजय प्रकाश की बातचीत

पिछले पांच वर्षों से मालेगांव धमाके में आतंकवादी होने के आरोप में बंद
मुस्लिम युवकों को मकोका की विशेष अदालत ने जमानत दे दी है, इस पर आपकी
प्रतिक्रिया?

मेरे मुताबिक उन्हें बरी होना चाहिए, क्योंकि वे अपराध में शामिल नहीं
हैं। फिर भी मुझे ख़ुशी है कि चलो कमसे कम पांच साल बाद सुरक्षा
एजेंसियों और अदालत को यह तो समझ में आया कि उन्होंने बेगुनाहों को
बेबुनियाद तौर पर गिरफ्तार कर रखा था। मैं ऐसे युवकों को तकदीर का धनी
मानता हूं, जिन्हें अच्छे वकील और नेक मददगार मिल जा रहे हैं। अन्यथा देश
में हुए दर्जनों धमाकों में सैकड़ों मुस्लिम युवकों को फर्जी तरीके से
फंसा दिया गया है, उनकी जिंदगी दोजख बन गयी है और कोई सुध लेने वाला नहीं
है।

हैदराबाद की मक्का मस्जिद में हुए धमाके के बाद गिरफ्तार मुस्लिम युवकों
को रिहा कराने में आप खुद शामिल रहें, उसका अनुभव कैसा रहा?

मक्का मस्जिद धमाका 2008 में करीब 100 मुस्लिम युवक आतंकवादी या उनके
सहयोगी बताकर गिरफ्तार किये गये थे, जिनमें से आज सभी रिहा हो चुके हैं।
रिहा युवकों में से 21 की पैरवी में मैं भी अपने स्तर से लगा रहा। नजदीक
से देखा कि कैसे इन निर्दोष युवकों के घर, परिवार, नौकरियां और सामाजिक
दायरे एक झटके में तबाह हुए। अदालत की लंबी चलने वाली कार्रवाईयों ने
हमारे सामने साफ कर दिया कि बिना सबूत के भी अपराधी बनाकर वर्षों तक
सड़ाया जा सकता है। इस दौरान मुझे अनुभव हुआ कि भारतीय खुफिया एजेंसिया
अक्षम भी हैं और बेगुनाहों को फंसाने में माहिर भी।

आप ऐसा कैसे मानते हैं?

मक्का मस्जिद मामले में जितने युवाओं को जांच एजेंसियों ने गिरफ्तार किया
था, उनमें से एक के भी खिलाफ कोई एक सबूत अदालत में नहीं पेश कर सकीं।
दाखिल किये गये चार्जशीट में हवाई आरोप लगाये गये थे, जिनका मक्का मस्जिद
धमाके से कोई लेना-देना नहीं था। हद ये थी कि पुलिस ने युवकों को सिर्फ
इसलिए संगीन अपराधी करार दिया था कि उनके पास उर्दू में लिखी कुछ
पुस्तकें-पत्रिकाएं मिली थी, जिन्हें खुफिया एजेंसियों ने जिहादी साहित्य
मान लिया था। मुझे याद है कि एक मुकदमें की सुनवाई के दौरान जांच अधिकारी
से जब जज ने एक आरोपी की ओर इशारा कर पूछा इसका अपराध क्या है, तो उसने
कुछ किताबें-पत्रिकाएं हवा में लहराते हुए कहा 'इसके यहां से यह उर्दू
में साहित्य मिला है और ये उसे पढ़कर और बांटकर देश में फसाद करना चाहता
था। इस पर जज ने दुबारा पूछा, 'लेकिन इसमें लिखा क्या है?' जांच अधिकारी
बोला, जज साहब उर्दू में है तो जिहादी बात ही होगी। जज ने फिर पूछा कि
आपने इसे किसी उर्दू या अरबी के जानकार को दिखाया है कि इसमें क्या है,
तो उसने कहा कि दिखाना क्या है, सभी जानते हैं कि इसमें आतंकवाद फैलाने
के बारे में लिखा होगा। तब फिर उस जांच अधिकारी को जज ने डांटा और वह चुप
हुआ। यह तो मैं सिर्फ एक उदाहरण है, विस्तार में जायें तो पुलिसवालों की
जिरह, सरकारी वकील की दलील और कई बार जजों के हास्यास्पद फैसले देख लगेगा
कि आतंकवादी होने का बुनियादी प्रमाण मुसलमान होना ही है। मगर दुखद यह है
कि इस मामले में न्यायपालिका दोषी पुलिसकर्मियों पर कोई कार्यवायी नहीं
करती।

मक्का मस्जिद में जो लोग बरी हुए हैं, क्या उनके लिए सरकार कुछ कर रही है?

राज्य सरकार ने निर्दोष मुस्लिम युवकों के पुनर्वास के लिए एक समिति
बनायी है और उम्मीद है कि उनको कुछ बेहतर लाभ मिल सके। राष्ट्रीय
अल्पसंख्यक आयोग के अध्यक्ष वजाहज हबीबुल्लाह ने तीन लाख रूपये मुआवजा और
नौकरी देने के सरकार को सुझाव दिया है। इस मामले में अदालतों की एक
महत्वपूर्ण भूमिका बनती है कि वह निर्दोषों को फंसाने वाले पुलिसवालों के
खिलाफ सीधी कार्रवाई करे। बगैर उसके मुआवजे और पुनर्वास से सिर्फ बात
नहीं बनेगी।

http://www.janjwar.com/2011-05-27-09-07-00/2107-major-quidari-interview-by-ajay-prakash


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