[Reader-list] The Naxalites overreached

Pawan Durani pawan.durani at gmail.com
Tue Apr 13 17:01:12 IST 2010


Source : http://www.merinews.com/article/jnu-an-oasis-for-maoists-and-naxalites/15803839.shtml

NAXALITES, THE most deadly terrorists of our time have staunch
supporters in India’s most famous university Jawahar Lal Nehru
University. Though these pro-Maoist students are a small section of
student community, but they manage to express their viewpoint very
widely as they get very strong support from media, administration and
political leaders.

They also get support of some students vouching for caste based
politics, their small numbers get presented in a big way in media as
they are well known to media houses. All this supports is exploited by
them when it comes to defend the killings of poor Adivasis and poor
security personnel who thrive their families on mere few thousands of
salaries.

These Maoist-Naxalites students’ wings are comprised of two main
organizations: AISA (All India Student Associations) and DSU
(Democratic Students Union). AISA says, ‘Naxalbari lal Salam’
(Naxalbari Red Salute) while DSU says, ‘Naxalbari ek Hi Rasta’
(Naxalbari the only way). This is the reason they are well known as
Naxalites among common students. Most of the time they are supporters
of each other and often they violently oppose nationalist student
organizations like YFE (Youth For Equality), AVBP (Akhil Bharatiya
Vidhyarthi Parishad), NSUI (National Student Union of India).

The barbaric killing of 76 CRPF personnel was mourned by YFE, ABVP and
NSUI. YFE is still lighting candles in each hostel to pay homage to
the souls of our security forces, who died for our national integrity.
However, Dantewara attack was vindicated by DSU and AISA and a
celebration was organized in form of a movie show on the next night.
It was an open support to naxalites, this act irked most of the
students and the programmed was opposed. Due to large participation in
anti-naxalite procession AISA came with mild words against the
‘killings’ still their pamphlet was more against government and less
against killer Maoists.

It is strange to see that AISA and DSU, openly support Maoists and
Islamic Terrorists, SAR Gilani and all possible insurgents from North
East. Maoist poets and thinkers are openly called and honoured by them
within JNU premises and JNU administration silently support such acts.
The Batla House encounter was held ‘fake’ by DSU and AISA, Kashmiri
separatists are praised by them… but still with administration’s
passive support they are able to retain JNUSU funds, offices for three
years.	 The various clubs are also with them and administration has
still to say anything on fund’s misappropriation by these naxalites.

Despite memorandums, letters to VC, requests and warnings by YFE,
ABVP, NSUI and many common students, these Maoists are performing well
and smoothly with JNU administration’s permissive attitude towards
them.

The deadliest attack of Dantewara is not just an attack against India
but also a hideous act against human rights. All concerned students
have formed an organization to combat the naxal menace in JNU campus
in name of ‘Student Against Naxalism’. On 11th April a huge solidarity
march was organized by Student Against Naxalim, and they are also
called a protest against administration on 12th April for allowing
Naxalites activities in campus.

The presence of Naxalites in campus has not only promoted
anti-national environment but also spread bitter division among
students on caste and religion lines. The divisive students group are
trapped by these naxalites on some caste issues but implicated that
support for their main business of Naxal terrorism.





>> 2010/4/12 Pawan Durani <pawan.durani at gmail.com>
>>
>> http://janatantra.com/2010/04/08/mukesh-kumar-singh-on-naxal-attack/
>>>
>>> इस युद्ध में नक्सलियों का सफाया ज़रूरी है
>>>
>>> युद्ध की परिभाषा क्या होनी चाहिए? क्या कोई माई का लाल हमारी सरकार को
>>> ये समझा सकता है? देश के सामने आज यही सवाल खड़ा है। हम युद्धरत हैं।
>>> हमारी सरकार को ये समझ में नहीं आ रहा है। विपक्षी पार्टियां भी उसे समझा
>>> नहीं पा रही हैं। कुछ अपनी सरकारों की नाकामी को छिपाने के लिए तो कुछ
>>> इसलिए कि हम्माम में सारे नंगे हैं। लोकतंत्र में सरकार भले ही
>>> गूंगी-बहरी और निकम्मी हो जाए लेकिन अगर विपक्ष का हाल भी ऐसा हो तो कैसे
>>> जागेगी सरकार? कैसे समझेगी और कौन समझाएगा? जनता की बारी तो पांच साल पर
>>> आती है।
>>>
>>> नक्सलवाद की लाल धारा देश के कम से कम 13 राज्यों में बह रही है।
>>> नक्सलियों ने अपने इलाके में रहने वाले करोड़ों लोगों को बंधक बना रखा
>>> है। लाखों वर्ग किलोमीटर पर इनका अवैध कब्ज़ा है। वहां सरकार और कानून का
>>> राज नाम की कोई चीज़ नहीं है। नक्सली हज़ारों सिपाहियों को हर साल मौत की
>>> गोद में पहुंचा देते हैं। करोड़ों की सम्पत्ति बर्बाद करते हैं। खुद गृह
>>> मंत्री और प्रधानमंत्री भी नक्सलियों को देश का सबसे बड़ा खतरा और यहां
>>> तक कि ‘वार अगेंस्ट पीपुल्स एंड स्टेट’ यानी ‘देश और जनता पर हमला’ बता
>>> चुके हैं। वो ये भी कह चुके हैं कि ये सबसे बड़ी समस्याओं में से एक है।
>>> वो इसे खुल्लम-खुल्ला युद्ध का नाम नहीं देना चाहते हैं।
>>>
>>> वजह साफ है। साहस नदारद है। नक्सलियों का सफाया करने की बात तो की जाती
>>> है लेकिन कहा जाता है, इसमें समय लगेगा। दो-तीन साल या उससे ज़्यादा भी
>>> लग सकते हैं। सरकार पूरी कोशिश कर रही है। लेकिन युद्ध की सारी परिभाषाओं
>>> पर खरा उतरने के बावजूद नक्सलियों को देश का दुश्मन कहने से परहेज़ हो
>>> रहा है। युद्ध को युद्ध कहने की हिम्मत नहीं हो रही है। युद्ध को विद्रोह
>>> का नाम देकर नेताओं की जमात पूरे देश को बहला रही है। इसकी एक वजह और है
>>> कि सरकारें नहीं चाहती है कि कल को उन्हें जनता को ये जबाव देना पड़े कि
>>> आखिर इस युद्ध के लिए ज़िम्मेदार कौन है?
>>>
>>> ज़िम्मेदारी तो सरकार की है कि क्योंकि युद्ध देश के नागरिकों ने ही
>>> छेड़ा है। कदाचित अपनी सतत उपेक्षा से अपमानित होकर। अपनी अमिट गरीबी और
>>> शोषण से प्रताड़ित होकर। अपनी ही सरकार के खिलाफ। लेकिन दुर्भाग्य से
>>> बगैर किसी राजनीतिक लक्ष्य के। नक्सलियों की सिर्फ यही कमज़ोरी है। उनका
>>> राजनीतिक लक्ष्य साफ नहीं है। वो मौजूदा व्यवस्था के तो विरोधी है लेकिन
>>> नयी व्यवस्था का जो मॉडल उनके पास है, उसमें भी न्याय और बराबरी नहीं है।
>>> सच्चाई और इमानदारी नहीं है। समाज को कहां पहुंचाना चाहते हैं, इसकी
>>> रणनीति नहीं है। वो सिर्फ एक खराब और गैरजबावदेह तंत्र के ऐसे विकल्प के
>>> रूप में खड़े हैं, जो खुद बर्बर, नृशंस, आतंकी और अमानवीय है। उसका न्याय
>>> ‘जिसकी लाठी, उसकी भैंस’ जैसा है।
>>>
>>> इसीलिए सरकार को सबसे पहले युद्ध को युद्ध कहने और मानने का साहस दिखाना
>>> चाहिए। युद्ध मान लें तो फिर कमान सेना के हवाले होनी चाहिए। सेना का काम
>>> ही है — युद्ध करना औऱ दुश्मन को परास्त करके उसे अनुशासित और अधीन
>>> बनाना। सेना को भी आक्रमण की ललकार आधे-अधूरे मन से नहीं दी जानी चाहिए।
>>> उसे पूरी ताकत से दुश्मन के सफाये का राजनीतिक आदेश सत्ता के शीर्ष से
>>> सरेआम मिलना चाहिए। सेना पर ये अंकुश नहीं होना चाहिए कि तो तोप का
>>> इस्तेमाल नहीं करेगी, मिसाइल नहीं दागेगी, टैंक नहीं दौड़ाएगी या हवाई
>>> हमले नहीं करेगी। क्योंकि युद्ध तो युद्ध है। उसकी श्रेणियां बनाएंगे तो
>>> कश्मीर और नगालैंड के किस्से ही दोहराए जाएंगे। हज़ारों और सिपाही शहीद
>>> करने पड़ेंगे। उन माताओं के लाल औऱ बहन-बेटियों का सुहाग कुर्बान करना
>>> पड़ेगा जो युद्ध को विद्रोह मानने के लिए मज़बूर होकर मुकाबले में अपने
>>> प्राणों का उत्सर्ग करते हैं।
>>>
>>> अब ज़रा हमारे शहीद सिपाहियों का कसूर तो देखिए! नक्सलवाद की वजह से
>>> निपटने का ज़िम्मा हमारे जिन हुक्मरानों के पास है, वो नाकाम रहे हैं।
>>> कानून-व्यवस्था राज्य का विषय है। पुलिस का काम है। राज्य सरकारों ने
>>> पुलिस और अदालत को निकम्मा बनाकर रखा है। वो सत्ताधारी पार्टी के लठौत से
>>> ज़्यादा और कुछ नहीं है। आम आदमी को न्याय देने और कानून का राज
>>> सुनिश्चित करने के लिए पुलिस का इस्तेमाल होता ही कब है! कभी हुआ भी ही
>>> नहीं है। वो नेताओं और प्रभावशाली लोगों के लिए निजी सुरक्षा गार्ड की
>>> तरह है जिसका बोझ जनता के टैक्स के पैसों से उठाया जाता है। बाकी जनता को
>>> अपनी सामान्य ज़रूरतों के लिए भी अलग से और अपने बूते सुरक्षा गार्ड का
>>> इंतज़ाम करना पड़ता है।
>>>
>>> हुकूमत के निक्कमेपन से जब हालात बेकाबू हो जाते हैं तो भ्रष्ट और पतित
>>> पुलिस से उम्मीदें की जाती हैं। कल तक नाइंसाफी की मिसाल बनी रही पुलिस
>>> से सरकार इंसाफ बहाल करने की उम्मीद करती है। ऐसी उम्मीद न तो पुलिस से
>>> पूरी हो सकती है और ना ही होती है। केन्द्र और राज्य दोनों ही सरकारों के
>>> पाप को धोने के लिए अर्धसैनिक बल को लगाया जाता है। ये पुलिस का विकल्प
>>> कभी नहीं बन पाते। बन भी नहीं सकते और बनना भी नहीं चाहिए। पुलिस की
>>> वेशभूषा वाले अर्धसैनिकों से न तो पुलिस के काम की अपेक्षा होती है और ना
>>> ही सेना के दायित्व की। ये पुलिस के काम में भी कमज़ोर होते हैं और सेना
>>> के भी। इनकी ट्रेनिंग ही ऐसी होती है। इसकी क्षमता और प्रतिभा इनके नाम
>>> ‘अर्धसैनिक’ से ही साफ समझी जा सकती है। ये सिर्फ पुलिस से बेहतर
>>> चौकीदारी कर सकते हैं। युद्ध ये लड़ ही नहीं सकते। ये तो बेचारे सरकार के
>>> नाम पर शहीद होने के लिए ही बने हैं। ज़्यादा से ज़्यादा पुलिस और
>>> अर्धसैनिक बल में इतना ही फर्क हो सकता है कि पहला राज्य सरकार की खातिर
>>> और दूसरा केन्द्र सरकार की खातिर शहीद होने के लिए अभिशप्त है।
>>>
>>> युद्ध लड़ना सेना का काम है। उसे युद्ध के लिए ही तैयार किया जाता है।
>>> युद्ध ही उसका संकल्प है और विजय ही उसका धर्म। सेना में ही साधनहीनता के
>>> बावजूद फतह हासिल करने का कौशल और मनोबल होता है। यही उसका सबसे बड़ा
>>> पराक्रम है। सेना को साधन मुहैया कराने के लिए देश किसी भी सीमा तक जाने
>>> को तत्पर होता है। जबकि पुलिस के साधनों का दायरा स्वार्थी सरकारें तय
>>> करती है।
>>>
>>> कश्मीर और बाकी अशांत क्षेत्रों में युद्ध को लेकर सरकार की ये सीमा तो
>>> समझ में आती है कि दुश्मन सीमा पार से दांव खेल रहा है। सीमा लांघने से
>>> अंतर्राष्ट्रीय दबाव की समस्या खड़ी हो जाएगी। परमाणु युद्ध की आशंका
>>> पैदा हो जाएगी। महाविनाश की नौबत आ जाएगी। अर्थव्यवस्था पर विकराल बोझ
>>> पड़ेगा। इससे गरीब और बदहाल हो जाएंगे। लेकिन नक्सलियों के मामले में तो
>>> ऐसा नहीं है कि उनके प्रशिक्षण शिविर पाक अधिकृत कश्मीर में चल रहे हैं।
>>> वहां भारत सरकार की लाचारी है। नक्सली तो सब कुछ देश में ही कर रहे हैं।
>>> देश में ही इनके प्रशिक्षण शिविर हैं। यहीं पुलिस की हत्या करके वो उनके
>>> हथियार लूट लेते हैं। मौका लगे तो जेल पर धावा बोल देते हैं। थाना लूट
>>> लेते हैं। सड़क और रेल की पटरी उखाड़ देते हैं।
>>>
>>> इसीलिए सरकार का युद्ध का एलान करना चाहिए। सेना को हर हाल में फतह का
>>> हुक्म मिलना चाहिए। सेना पर कोई बंदिश नहीं होनी चाहिए। न ज़मीनी और ना
>>> ही हवाई। मानवाधिकारों की कोई बात नहीं होनी चाहिए। इसके लिए राजनीतिक
>>> इच्छा शक्ति जुटाई होगी। ये कहने से बात नहीं बनेगी कि नक्सली तृणमूल के
>>> नज़दीकी हैं या वामपंथियों के। चंद बंधकों की रिहाई के लिए अगर कंधार
>>> जाकर आतंकवादियों को छोड़ा जा सकता है तो ज़रा सोचिए नक्सलियों ने जिन
>>> करोड़ों लोगों को बंधक बना रखा है, उनके लिए हुकूमत को किस सीमा तक जाना
>>> चाहिए! संविधान में कहां ऐसा लिखा कि अगर देश के ही कुछ भटके हुए लोग देश
>>> के ही खिलाफ युद्ध छेड़ दें तो भी सरकार को उसे युद्ध नहीं मानना चाहिए!
>>> मानवाधिकारों को लेकर अगर किसी को संदेह है तो सरकार को युद्ध की परिभाषा
>>> को साफ करना चाहिए। वर्ना नक्सलियों जैसे खराब नागरिकों के सामने
>>> सिपाहियों जैसे तिरंगा प्रमियों की बलि जारी रहेगी। फिर भले ही हम अपनी
>>> सुविधा के मुताबिक बलि को शहीद के रूप में परिभाषित करते रहें।
>>>
>>> ((मुकेश कुमार सिंह ज़ी न्यूज़ में वरिष्ठ विशेष संवाददाता हैं। आप उनसे
>>> mukesh1765 at gmail.com पर संपर्क कर सकते हैं।)
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